


गोष्ठी के प्रथम भाग में काव्य पाठ था जिसका आरम्भ पारंपरिक रूप से इंद्रा वर्मा ने स्वरचित सरस्वती वंदना से किया। इसके बाद डॉ. शैलजा सक्सेना ने कैनेडा में हिन्दी साहित्य जगत के वयोवृद्ध सदस्य डॉ. ओंकार प्रसाद द्विवेदी के स्वर्गावस के बारे में सूचना दी और सभी ने मौन धार कर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की।
इस गोष्ठी में न केवल हिन्दी की बल्कि उर्दू और पंजाबी की भी श्रेष्ठतर रचनाएँ सुनने को मिलीं। गोष्ठी के संचालन का कार्यभार डॉ. शैलजा सक्सेना ने उठाया और उन्होंने कवियों/कवयित्रियों से अनुनय किया कि अगर रचनाएँ आजकल समाज के घटनाक्रम के बारे में हो तो बेहतर होगा। कविता सुनाने वालों में थे पूनम कासलीवाल, लता पांडे, सविता अग्रवाल, कृष्णा वर्मा, पूनम चंद्रा "मनु", कैलाश महंत, सुमन कुमार घई, प्यारा सिंह (कलम), सुरजीत कौर (कलम), तलत ज़ारा, जसबीर कालरवी, मीना चोपड़ा, सरन घई, राज महेश्वरी, शैलजा सक्सेना, गोपाल बघेल, नीरज केसवानी और प्रमिला भार्गव थे। श्रोताओं ने कविताओं को बहुत सराहा।
तलत ज़ारा क्योंकि पंजाबी या हिन्दी पढ़ नहीं सकतीं तो उन्होंने पुस्तक को पहले उर्दू लिपी में फोन पर सुरजीत कौर से सुनते हुए टाईप किया और बाद में अनुवाद किया। उन्होंने उपन्यास के बारे में बात करते हुए कहा कि यह एक आम नावल नहीं है। इसमें "अमृत" एक ऐसे आनन्द को पाने के लिए प्रयास कर रहा है जो उसे न तो विभिन्न सभ्यताओं के दार्शनिकों से मिलता है, न ही विभिन्न धर्मों से और न ही समाज की रची हुई परंपराओं और संस्थानों से। यह कहानी उसका अंदरूनी सफ़र है और जो उसे अंत में उसी आनन्द की प्राप्ति करवाता है जिसे पाने के लिए वह दुनिया भर में भटका।



"कलम" के संस्थापक और अध्यक्ष प्यारा सिंह ने समीक्षक के दायित्व के बारे में कहा और कहा कि समीक्षक को केवल पुस्तक के कथानक की बात करनी चाहिए और अपने पूर्वाग्रहों को अलग रखते हुए लेखक की कही बात और उनके पात्रों में लेखक को नहीं खोजना चाहिए।
इसके बाद शैलजा सक्सेना ने जसबीर कालरवी को इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे में बोलने के लिए कहा। जसबीर ने कहा कि इस उपन्यास का जन्म कुछ प्रश्नों से हुआ। उन्होंने कहा कि बच्चे का बचपन से ही अनुकूलन (कंडीश्निंग) शुरू हो जाता है और कई बार वह बच्चा व्यस्क होकर इस प्रक्रिया पर प्रश्न करने लगता है। अमृत का नायक भी यही कर रहा है। कोई धर्म आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानता है, कोई केवल आत्मा को ही मानता और कोई कहता है कि न आत्मा और न परमात्मा – तो फिर सच क्या है। यह स्वयं चल रही बहस अमृत का मानसिक द्वंद्व है।
अंत में शैलजा जी ने पंजाबी साहित्य के प्रसिद्ध वयोवृद्ध आलोचक बलराज चीमा जी को आमंत्रित किया। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की कि इस उत्कृष्ट साहित्य मंच पर हिन्दी, पंजाबी और उर्दू की रचनाएँ सुनने को मिलीं और उन्होंने कहा कि यह त्रिवेणी बहती रहनी चाहिए। उन्होंने अनुवाद प्रक्रिया के बारे में कहा कि अनुवादक को तलवार की धार पर चलते हुए एक-एक शब्द पर विचार करना पड़ता है। अंत में उन्होंने सभी को इस सफल कार्यक्रम के लिए बधाई दी और सभा का विसर्जन हुआ।
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